MONTHLY BULLETIN OF CITY MONTESSORI SCHOOL, LUCKNOW, INDIA

Personality Development

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August 2019

नौकरी या व्यवसाय ही ‘आत्मा के विकास’ का सबसे सरल एवं एकमात्र उपाय है!

- डाॅ. जगदीश गाँधी, संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ

(1) क्या ‘असाधारण’ व्यक्तियों तथा ‘साधारण व्यक्तियों’ के द्वारा आत्मा के विकास में कोई फर्क है?

अ) हाँ! समाज में कुछ ‘असाधारण’ तथा बिरले लोग ही’ ऋषि-मुनियों तथा महापुरूषों के रूप में विकसित हुए हैं जिन्होंने अपनी आत्मा के विकास के लिए कोई ‘नौकरी या व्यवसाय’ नहीं किया। इन महापुरूषों ने पर्वतों, कन्धराओं, गुफाओं तथा घास-फूस की झोपड़ियों या साधारण परिस्थितियांे में रहकर तथा समाज में अत्यन्त सादा एवं सरल जीवन जीकर और व्यापक ‘समाज के लिए उपयोगी बनकर’ समाज की महत्ती सेवा की और इस प्रकार अपनी आत्मा का विकास किया।

(ब) किन्तु ‘साधारण व्यक्ति’ केवल मजदूरी, किसानी, नौकरी, उद्योग या व्यवसाय के द्वारा समाज के सुचारू रूप से संचालन में तथा उसके विकास में योगदान कर व ‘समाज के लिए उपयोगी बनकर’ ही अपनी आत्मा का विकास कर सकता है। इसके अतिरिक्त आत्मा के विकास का अन्य कोई उपाय नहीं है।

(2) यदि व्यक्ति नौकरी या व्यवसाय न करें तो अपनी आत्मा का विकास कैसे करें?

व्यक्ति यदि नौकरी या व्यवसाय के द्वारा अपनी आजीविका नहीं कमायेगा तो अपने परिवार का भरण-पोषण कैसे करेगा? अपनी स्वयं की कमाई न होने की स्थिति में व्यक्ति या तो भीख मांगेगा या दूसरों की कमाई खायेगा, या चोरी बेईमानी की रोटी खायेगा या आत्महत्या कर लेगा। यह सब पाप है। ऐसी कोई नौकरी या व्यवसाय नहीं करना चाहिए जो आत्मा के विकास में बाधक हों। अतः ईमानदारी और परिश्रम से नौकरी या व्यवसाय करके ‘समाज के लिये उपयोगी बनना’ ही आत्मा के विकास का एकमात्र उपाय है। बच्चों को ऐसी गुणात्मक शिक्षा दें जिससे कि वे सशक्त समाज के निर्माण व विकास में अपना योगदान कर सकें।

(3) क्या हम नौकरी या व्यवसाय करते हुए ही आत्मा का भी विकास कर सकते है।

हाँ! प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका ईमानदारी से कमाने के लिए कोई न कोई छोटे से छोटा या बड़ा अपना उद्योग, व्यवसाय, नौकरी या मेहनत मजदूरी करना, अखबार बेचना, जूतों में पालिश करना, ठेेला लगाना, कुली का कार्य करना, कमजोर बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना, रिक्शा चलाना आदि-आदि कोई न कोई कार्य अवश्य करना चाहिये। दूसरों की कमाई खाने या झूठ और पाप की कमाई खाने से हमारी आत्मा कमजोर होती है। जबकि छोटे से छोटा परिश्रम व ईमानदारी से कमाया हुआ एक पैसा भी हमारी आत्मा के विकास में सहायक होता है।

(4) क्या नौकरी द्वारा आजीविका कमाना परमात्मा द्वारा निर्मित समाज की सेवा का साधन हैं?

हाँ! अनेक लोग पवित्र सेवा भावना से सरकारी, प्राइवेट या समाज सेवी संस्थाओं में नौकरियाँ करते हैं या किसानी, मेहनत-मजदूरी का कोई कार्य करते हैं। जैसे- खेतीबाड़ी, शिक्षा, न्यायिक, प्रशासनिक, सफाई, यातायात, मीडिया, चिकित्सा, रेलवे, पुलिस, सेना, बैकिंग, जल संस्थान, बिजली, सड़क, निर्माण आदि विभागों में कार्यरत रहते हुए जनता को अनेक प्रकार की जन सुविधायें उपलब्ध कराते हैं और समाज का संचालन एवं सुचारू व्यवस्था बनाने में अपना योगदान करते हैं। किन्तु जो व्यक्ति अपने कार्यों को जनहित की पवित्र सेवाभावना से न करके निपट अपनी आजीविका कमाने की भावना से करते हैं वे स्वयं ही अपनी आत्मा का विनाश कर लेते हैं।

(5) क्या उद्योग या व्यवसाय द्वारा आजीविका कमाना समाज की सेवा का साधन है?

हाँ! एक उद्योगपति पवित्र मन से समाज के लिये उपयोगी वस्तुओं जैसे कपड़े का निर्माण करके या एक व्यवसायी आम लोगों को दैनिक उपयोग की वस्तुऐं जैसे जनरल मर्चेन्ट, दवाईयाँ स्टेशनरी आदि को जहाँ बनती है वहाँ से एकत्रित करके उनके निवास के आसपास उपलब्ध कराके जन सुविधायें प्रदान करते हैं। उदाहरण के लिए एक छोटी सी किराने की दुकान करने वाला अन्य अनेक सामानों के साथ एक छोटी सी सुई भी अपनी दुकान में रखता है। यदि वह ऐसा न करता तो हमें एक सुई को भी खरीदने के लिए अपने नगर से काफी दूर स्थित दूसरे नगर में जहाँ सुई की फैक्टरी स्थित है वहाँ जाना पड़ता। यदि फैक्ट्री कपड़ा न बनाये तो समाज की क्या स्थिति होगी?

(6) क्या नौकरी या व्यवसाय द्वारा आजीविका कमाने वाले सम्मान के पात्र हैं?

हाँ! परिश्रम, ईमानदारी व जनसेवा की भावना से मजदूरी, मेहनत, नौकरी, व्यवसाय या उद्योगों के द्वारा आजीविका कमाने वाले व्यक्ति समाज के सुचारू रूप से संचालन में व इसकी व्यवस्था बनाने में तथा इसके विकास में सहायक हैं। अतः ऐसे सभी व्यक्ति समाज के लिये श्रद्धा एवं सम्मान के पात्र हंै! अन्य कोई नहीं।

(7) मनुष्य उहापोह, अनिश्चय एवं संशय की स्थिति मेें क्यों है?

आज मनुष्य उहापोह, अनिश्चय एवं संशय की स्थिति में रह रहा है। और निरन्तर यह प्रश्न हर व्यक्ति को अंदर से सदैव परेशान करता रहता है कि क्या नौकरी, उद्योग या व्यवसाय हमारी आत्मा के विकास मंे सहायक है या बाधक है? परमात्मा ने मनुष्य को स्वतंत्र इच्छा शक्ति दी है। वह चाहे तो प्रभु की प्रसन्नता के लिए जन सेवा के पवित्र उद्देश्य से अपनी आजीविका का उपार्जन मजदूरी, किसानी, नौकरी उद्योग या व्यवसाय के द्वारा करके ‘अपनी आत्मा का विकास करले’ या फिर चाहे तो ‘जनसेवा की पवित्र भावना से रहित’ केवल अपनी आजीविका कमाने के लिए मजदूरी, किसानी, नौकरी या व्यवसाय करके अपनी आत्मा का विनाश कर ले?

(8) क्या अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन, संत रैदास, संत कबीर, डा0 राधाकृष्णन अपनी आत्मा का विकास कर सके?

हाँ! अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने नाव चलाकर, जूतों पर पालिश करके एवं अखबार बेचकर व रद्दी की दुकान पर नौकरी करके ईमानदारी से अपनी आजीविका कमाई और अपनी आत्मा को विकसित किया। ईमानदारी और अति कठोर परिश्रम से अपनी आजीविका कमाते हुए समाज सेवा के अति महत्वपूर्ण कार्य को करके वे अमेरिका जैसे बड़े देश के सर्वोच्च राष्ट्रपति के पद पर आसीन हुए और गुलामी प्रथा को समूल नष्ट किया, । रैदास जूते बनाकर अपनी आजीविका चलाने वाले एक व्यवसायी थे। पूरे मनोयोग एवं अति परिश्रम से जूते बनाते समय उनकी भावना यह रहती थी कि जो भी उनका जूता खरीदे, उसे जूता पहनकर किसी भी प्रकार की तकलीफ न हो तथा जूता आरामदेय हो। उनकी इस पवित्र भावना के कारण ही स्वयं भगवान की कृपा से उन्हें संत रैदास की उपाधि मिली। कबीर एक जुलाहे थे। वह अपनी आजीविका कमाने के लिए कपड़ा बुनने का कार्य बड़ी ही लगन तथा सेवा भाव से करते थे। उन्हांेने अपने व्यवसाय के द्वारा ही आत्मा का विकास किया और संत कहलाये। राष्ट्रपति डा0 राधाकृष्णन एक शिक्षक की नौकरी करके अपनी आजीविका कमाते थे। उन्होंने एक आदर्श शिक्षक का आचरण करते हुए अपनी आत्मा का विकास किया।

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